मन का माधुर्य : सेवा धर्म ( अंतिम भाग #२) | The melody of mind: service religion (Final Part # 2)
मन का माधुर्य : सेवा धर्म ( अंतिम भाग #२) | The melody of mind: service religion (Final Part # 2)
स्वर्गीय रविशंकर गणेशजी अन्जारिया इस युग के महान सेवाव्रती महापुरुष थे । बाल्यकाल से ही उन्हें मानव समाज के सेवा करने की लगन थी । बचपन में ही उनके पिता का देहावसान हो जाने से परिवार की स्थिति अत्यन्त विकट थी ।
किन्तु मानवता की सेवा का अडिग संकल्प लेकर जन्म धारण करने वाले परम पुरुष कभी बाधाओं अथवा कठिनाइयों से भय नहीं खाते । वे साहस एवं दृढ निश्चय के साथ अपने लक्ष्य की पूर्ति के मार्ग पर आगे बढ़ते जाते हैं और विपदाएं स्वयमेव उनके मार्ग से हटती चली जाती हैं ।
श्री रविशंकर डॉक्टर बनकर मनुष्य सेवा करना चाहते थे । वे बम्बई गए । वहां के ग्राण्ड मेडिकल कॉलेज में प्रवेश पाने के लिए उन्होंने आवेदन प्रस्तुत किया किन्तु वे अत्यन्त निर्धन थे । वहां के अधिकारीयों ने कहा, “भाई, आप निर्धन हैं । निर्धन व्यक्ति यदि डॉक्टर बनेगा तो वह हमेशा पैसा कमाने की ही धुन में रहेगा । मनुष्य की सेवा वह कैसे करेगा । अत: आपको प्रवेश देना कठिन है ।”
किन्तु रविशंकर अडिग थे । उन्होंने कहा – “श्रीमन ! मैं निर्धन अवश्य हूँ, किन्तु एक मनुष्य हूँ । मनुष्य का सबसे पुनीत कर्तव्य, सबसे बड़ा धर्म मनुष्य की सेवा करना है । मैंने यह सेवा का व्रत लिया है । आप विश्वास कीजिए, मैं धन का लालच आजीवन नहीं करूँगा और मानवता की सेवा में यदि मेरे प्राण भी चले गए तो उन्हें सहर्ष समर्पित कर दुँगा ।”
रविशंकर की यह लगन, उनका यह चरित्र देखकर अधिकारी प्रभावित हुए, उन्हें प्रवेश मिल गया और एक दिन ऐसा भी आया कि जब वे डॉक्टर बन कर उस कॉलेज से निकले ।
इसके बाद डॉक्टर रविशंकर द्वारा मनुष्य सेवा का अटूट क्रम ही जारी हो गया । उन्होंने अपने जीवन में दीन-दु:खी रोगियों की तो अभूतपूर्व सेवा की ही, साथ ही समाज में घुसे हुए अनेक रोगों को दूर करने का अथक प्रयास भी वे निरंतर करते रहे । उन्होंने जिस स्थान पर भी नौकरी की, वहां से वेतन के अतिरिक्त कभी किसी व्यक्ति से एक पैसा भी फीस या अन्य प्रकार की भेंट के रूप में नहीं लिया । गरीब रोगियों के द्वार पर स्वयं जाकर उन्हें औषध दी, उपचार किया और उनकी सेवा की । अनेक बार प्लेग जैसे भयानक छूत के रोग फैलने पर भी उन्होंने अपना स्थान छोड़ने का विचार तक मन में नहीं किया और अडिग रहकर रोगियों की सेवा करते ही रहे ।
एक समय वे राजकोट की मेडिकल लेबोरेटरी में नौकरी करते थे । उन दिनों राजकोट में भयानक प्लेग फूट पड़ा । सैकड़ो परिवार प्लेग की चपेट में आकर विनष्ट होने लगे । स्वयं रविशंकर के परिवार में भी लोग बीमार पड़ गए । लोगों ने उन्हें बहुत समझाया कि वे ऐसे भयानक समय में राजकोट छोड़ कर अन्य नगर में चले जाएं । किन्तु ऐसा व्यक्ति जिसने अपना सर्वस्व ही मानवता की सेवा के लिए अर्पित कर दिया हो, ऐसे कठिन समय में मनुष्यों को दु:खी छोड़कर भला कहां और कैसे जा सकता था ?
डॉक्टर रविशंकर लेबोरेटरी में कार्य करते थे । उनके लिए यह आवश्यक नहीं था कि वे प्लेग के रोगियों का उपचार करते । किन्तु मनुष्य के दुःख को देखकर द्रवित हो जाने वाले रविशंकर घर-घर जाकर रोगियों का उपचार करने लगे । स्वयं उनके गले में भी प्लेग की गांठ निकल आई किन्तु उसकी चिन्ता किसे थी ? प्लेग का प्रकोप इतना तीव्र था कि गृहस्थ के घरों से मृत व्यक्तियों के शव को उठाकर ले जाने वाला भी कोई नहीं मिलता था । शव के साथ जाने वाले भी रोग की चपेट में आ जाते थे ।
ऐसे कठिन समय में ही सच्चे सेवाव्रती की अग्नि-परीक्षा होती है । इस अग्नि-परीक्षा में से डॉक्टर रविशंकर कुन्दन बनकर निकले । उन्होंने अपने जीवन की चिन्ता छोड़कर रोगियों का उपचार किया, शवों को स्वयं गाड़ी पर लाद कर श्मशान भूमि तक वे ले गए और उनका दाह-संस्कार भी किया ।
घटनाएं अनेक हैं । उन सबका वर्णन करने के लिए बहुत-सा स्थान चाहिए । संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि डॉक्टर रविशंकर इस युग की मानवता के अनमोल रत्न थे ।
सामाजिक रोगों को दूर करने के लिए भी वे सतत प्रयत्नशील रहे । वे जब लगभग तीस वर्ष की आयु के थे, उसी समय उनकी धर्मपत्नी का देहान्त हो गया था । उनके लिए योग्य कन्याओं को कोई कमी न थी । हितैषी, सम्बन्धियों ने बहुत आग्रह भी किया कि वे पुनर्विवाह कर लें । उन्होंने यही कहा – “मेरी छोटी बहन विधवा हो गई है । यदि उसका पुनर्विवाह हो, तो मैं भी विवाह करने को प्रस्तुत हूँ । किन्तु यदि आप लोग एक विधवा को पुनर्विवाह करने को आज्ञा नहीं देते, तो एक विदुर को पुनर्विवाह करने का आग्रह करने का आपको कोई अधिकार नहीं ।”
इस प्रकार रविशंकर आजन्म अकेले ही रहे और अपने जीवन के अन्तिम क्षण तक पूर्ण रूप से निर्लोभी रहकर दीन-दु:खी मानव-समाज की सेवा के महाव्रत का पालन करते रहे ।
हमें विचार करना चाहिए – इस अमूल्य मानव-जीवन को प्राप्त कर हम कितने दीन-दु:खियों की सेवा करते हैं ?
इससे जुड़ी पिछली पोस्ट का जुड़ाव है -
https://steemit.com/life/@mehta/or-the-melody-of-mind-service-religion-part-1
The English translation of this post by Google language tool as below:
Late Ravishankar Ganeshji Anjaria was the great servant of this era. From childhood he had the desire to serve human society. In the childhood itself, the situation of the family was very grim because of her father's death.
But with the determination of the service of humanity, the ultimate male who is born to birth never fears obstacles or difficulties. They go forward on the path of fulfilling their goal with courage and determination, and the disasters turn away from their path.
Mr. Ravi Shankar wanted to become a doctor by becoming a doctor. They went to Bombay. He submitted the application to get admission in the Graduate Medical College there, but he was very poor. The officers there said, "Brother, you are poor. If a poor person becomes a doctor, he will always be in tune to earn money. How will he serve man? So it is difficult to enter you. "
But Ravishankar was stubborn. They said - "Mr. I am poor, but I am a man. Man's most righteous duty, the biggest religion is to serve man. I have taken the fast of this service. Believe me, I will not live the greed of wealth and will dedicate my heart to the service of humanity, if my life goes away too. "
Ravi Shankar's passion, officials were impressed by seeing his character, he got admission and one day it came that when he came out of the college as a doctor.
After this, the unbroken sequence of human service was released by Dr. Ravi Shankar. He continued his untiring service for the poor and suffering patients in his life, as well as his continued efforts to remove many diseases in the society. Apart from the salaries of the place where they also took the job, they did not take any money or any other kind of gift from any person. At the door of the poor patients themselves went to the hospital and gave them medicines, treated them and served them. Many times he did not even consider the idea of leaving his place even after spreading the disease of terrible contagious disease like plague, and he continued to remain patient and serve the patients.
At one time he used to work in Rajkot's Medical Laboratory. In those days, a terrible plague erupted in Rajkot. Hundreds of families started getting destroyed due to the plague. In the family of Ravi Shankar himself, he got sick. People have explained to them so much that they should leave Rajkot in such a terrible time and move to another city. But a person who has sacrificed his entirety for the service of humanity, in such a difficult time, leaving the people sad, where and how could they go?
Doctor Ravi Shankar used to work in the laboratory. It was not necessary for them to treat plague patients. But after seeing the sadness of man, Ravi Shankar, who is moving towards home and going home, started taking treatment of the patients. The plague itself came out in his throat, but who was his concern? The outbreak of the plague was so intense that there was no one to carry the carcasses of the dead from the household's homes. Those accompanying the dead would also get into the grip of the disease.
In such a difficult time, the test of true vigilance is conducted. Dr. Ravishankar Kundan came out of this fire examination. He left the anxiety of his life and treated the patients, loaded the dead bodies on the vehicle himself and carried them to the crematorium and also cremated them.
The events are many. A lot of space is needed to describe them all. In short, it can be said that Dr. Ravi Shankar was the precious jewel of humanity in this age.
They are also persistent efforts to overcome social diseases. When he was about thirty years old, at that time his dying wife had died. There was no shortage of daughters worthy of them. Friendly, relatives also urged that they remarry. They said the same - "My younger sister has become a widow. If he is remarried, then I am also presented to marry. But if you do not order a widow to remarry, then you have no right to request a vipour to remarry. "
Thus, Ravishankar Ajanam remained lonely and continued to remain utterly innocent till the last moment of his life and continued to follow Mahavrata of humble service to human society.
We should consider - how many poor and miserable service do we receive by achieving this priceless human life?
Hiii...mehta ji
Great Post with Great Information.
We always held others without expectation from return help...
Hope u like this post also
https://steemit.com/india/@ashokroy79/are-we-independent-really-or-still-slaves-c9a2b187de026
Ohhh.. Yes
Of course... Bro
Human quality is not the possession of all, it is deeply rooted in the hearts of many. I would like doctors to exist today with such great dedication to him, but unfortunately it is only a dream.
A big greeting and thanks for this wonderful story @mehta
Thanks @nellita66 for understanding
निस्वार्थ भाव से की गयी सेवा हमेशा आनंदमय होती है ,और स्वार्थ के लिए की गयी सेवा हमेशा दुःख देती है. जब हमारी इच्छा पूरी नहीं होती.
Bilkul sahi , matlab se help karna seva nahi doortha kahalayegi .
Aggreed
Ek insaan ko dusaro ki madad hamesa karni chahiye chahe wo ameer ho ya gareeb ho Insaaniyat hi sab kuch hota hai.
True dear ,mandiro me daan se aacha logo ko seva daan de ,jo zarooratmand ho
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रविशंकरजी ने सच्चे दिलसे रोगी की सेवाकी, आजकल तो ऐसे सेवाभावी डोकटर मिलते कहाँ है।
True ,most doctors today are cheaters .But I have met few doctors who won my heart
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डॉ. रविशंकर जैसे लोग अब बहुत कम मिलते है, जो केवल समाज सेवा करना चाहते हैं, ना कि सिर्फ पैसे कमाना।
Service is the greatest quality of human being that makes the best of other creatures. Service is the amazing lifeline of humanity. Service is supreme for the yogi, for the yogis, the discharge of service is done by thinking of wisdom, intellect, time and time. There is no tenacity and sacrifice as equal to service.
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True dear,Niswarth sewa hi sadgun hai
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Your right brother
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such a good post of great humanity.
Dr. RAVI did a great job in his life and you share his story to us is also a great job.
I want to say that today's conditions are not like that..
He works for humanity not for money..
this is heart touching post.
मिला है जीवन किसी के काम आने के लिए......
पर समय तो बित रहा है कागज के टुकडे कमाने के लिए।
धन्यवाद महता जी
Ha...ha...correct bhai. Yaha bhi sab isliye hai.
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धन्यवाद जी
जीवन मे व्यक्ति सेवा करके सबकुछ प्राप्त कर सकता है। लेकिन वह सेवा छल कपट से स्वतंन्त्र होनी चाहिए। जीवन मे सबकुछ है अगर सेवा भाव है।
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