गाय का मशीनीकरण और उसकी ‘उत्पादकता’[खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, भाग – 3, प्रविष्टि – 13]steemCreated with Sketch.

in LAKSHMI4 years ago
“दुधारू गाय की लात भी भली, - यह उक्ति स्पष्ट इंगित करती है कि जब तक गाय दूध देगी, हम उसकी लात भी खा लेंगे। लेकिन जैसे ही वह दूध देना बंद करेगी, हम उसे सिर्फ लात ही नहीं मारेंगे, बल्कि छुरा भोंककर और उसका खून पीकर बदला लेंगे।”

“अच्छी” दुधारू गायों के “उत्पादन” के लिए अच्छे नस्ल के साझे-सांड के जरिये सभी गायों का कृत्रिम रीति से बलात्कार करवाया जाता है, अथवा इतना ही दर्दनाक कृत्रिम गर्भाधान का तरीका अपनाया जाता है। अधिक से अधिक दूध उत्पादन के लिए कई वैज्ञानिक और जैविक प्रयोग कर गायों की कृत्रिम नस्लों को तैयार किया गया है जो कि उनकी स्वाभाविक एवं नैसर्गिक शारीरिक सरंचना के एकदम विरूद्ध है। वे एक जानवर कम और दूध-उत्पादन की मशीन ज्यादा लगते हैं!

दो-तीन लिटर दूध देने वाली देशी गायों के मुकाबले ये “उन्नत” नस्लें 25-50 लिटर तक दूध दे देती है। ज़्यादातर उम्रदराज़ लोग आसानी से अपने बीते दिन याद कर सकते हैं कि आज से महज तीन-चार दशक पहले हमारे देश में दूध इतना प्रचलन में नहीं था। जब मेहमानों के आगमन पर अथवा पर्व के दिनों में खीर बनाने के लिए अल-सुबह चार बजे से कतार में घंटों खड़े रहने के बाद भी दूध का मिलना निश्चित नहीं होता था। अधिक दूध की आवश्यकता होने पर कई दिन पहले ही दूधवाले को बताना होता था। लेकिन आज बाज़ार में एकदम इतना सारा दूध कहाँ से आ गया?

मानव ने अपने स्वार्थ के खातिर गायों की कई अप्राकृतिक नस्लों को तैयार (माफ़ कीजिये, ‘विकास’) किया है। गायों की प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाली देसी नस्लें केवल अपने बछड़े की आवश्यकता के लायक ही दूध स्रावित करती थी। परंतु आज के पशु-वैज्ञानिकों ने इनकी जिनेटिक हेर-फेर करके ऐसी “उन्नत” नस्लें बना डाली है जो अपने बछड़ों की ज़रुरत से 12 गुना तक अधिक दूध स्रावित करने को मजबूर है। इतना दूध बनाने के लिए इनके शरीर की ग्रंथियों को अत्यधिक श्रम करना पड़ता है। एक पशु वैज्ञानिक ने इसकी तुलना एक व्यक्ति को प्रतिदिन लगातार 6 घंटे तक बिना रुके दौड़ाने से की है। आप ही कल्पना कीजिये, गाय के अपने खून से बनने वाले 25 लिटर दूध के लिए उसे रोज़ कितना खून बनाने की आवश्यकता होती होगी! एक-दो दिन नहीं, रोज़, प्रतिदिन! याद रखें, गाय की दुग्ध-ग्रंथियों में से 500 लीटर रक्त संचारित होने पर एक लीटर दूध का निर्माण होता है।

एक ही स्थान पर जीवन-भर खड़े-खड़े बार-बार गर्भाधान-प्रजनन और दूध देने के क्रूरतम चक्र से पीड़ित गाय की ये “उन्नत” नस्लें अनेक बीमारियों का घर बन जाती है। गाय की मौत या बूचड़खाने की शीघ्र यात्रा की उत्तरदायी मुख्यतः दो बीमारियाँ हैं, लंगड़ापन और मस्टैतिस (स्तनशोथ), जो इन्हीं “उन्नत” नस्लों और ‘रिकोम्बिनेंट बोवैन ग्रोथ होर्मोन’ (rBVH) जैसी दवाओं की देन हैं।

दूध के व्यावसायीकरण के अन्य हानिप्रद पहलू भी आज किसी से छिपे नहीं है। इंडियन काउन्सिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च और एफ.एस.एस.ए.आई. जैसी प्रामाणिक शीर्षस्थ संस्थाओं के सर्वे बताते हैं कि बाज़ार में बिकने वाला 70% दूध मिलावटी है। पूरे भारत में दूध की शुद्धता पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। आज आपके दूध में यूरिया, लिक्विड साबुन, तेल, गन्दा पानी, डीडीटी, एचसीएच जैसे कीटनाशक आदि पाए जाते हैं। इतना ही नहीं, उसमें रासायनिक हारमोंस, पस आदि भी विद्यमान होते हैं और आर्सेनिक, कैडमियम व लेड (जस्ता) जैसे जहरीले तत्वों की भी मौजूदगी होती है। कुछ जगह तो दूध को गाढ़ा करने के लिए उन्हें कुछ समय के लिए केंचुओं के हवाले कर दिया जाता है! ये तो बात है मिलावटी दूध की, कई तो दूध पूरे के पूरे ही कृत्रिम होते हैं। व्यापारियों का लोभ नित नई साजिशें रचने में लगा रहता है। पहले उपभोक्ताओं को अमृत के नाम पर विजातीय दूध पिलाया और अब दूध के नाम पर मिलावटी दूध। इतना ही नहीं, पैसों के बढ़ते लोभ ने जहरीले रसायनों से कृत्रिम दूध तक बना दिया है! ये सिंथेटिक दूध या नकली दूध के नाम से कुख्यात है। इनमें अंश मात्र भी गाय का दूध नहीं होता, सिर्फ जहरीले रसायनों से तैयार किया दूध का प्रतिरूप होता है।

डेयरी उद्योगों में कई गायें होती है। इन सबका एक साथ दूध दुहने के लिए विद्युत् से चलने वाली मशीनों का इस्तेमाल किया जाता है। जब गाय के थनों में दूध खत्म हो चुका होता है तब भी काफी समय तक लापरवाही से ये मशीनें चलती रहती है। इससे गाय अथाह दर्द से कराहती है। लगातार मशीनों के अत्यधिक इस्तेमाल से थनों में हुए घावों में भरा पस और खून भी दूध में मिल जाता है। ये घाव ई-कोलाई जैसे रोगाणु बेक्टेरिया को भी आप तक पहुंचाते हैं।

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खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती में आगे पढ़ें, इसी श्रंखला की अगली पोस्ट में।

धन्यवाद!

सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी