मीठे शहद का कड़वा पहलू: मधुकोष से उपजता महा-अकाल -1 [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, प्रविष्टि – 21]steemCreated with Sketch.

in LAKSHMI4 years ago (edited)
जो जीव जितना सूक्ष्म होता है, वो उतने ही बड़े और महत्वपूर्ण कार्यों में अपनी भूमिका निभाता है। अक्सर नेपथ्य में किये कार्य, मंच के समक्ष बैठे दर्शकों की समझ के दायरे से बाहर होते हैं।

प्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने एक बार कहा था, “जिस दिन इस धरती से मधुमक्खियाँ खत्म हो जायेगी, मानव के अस्तित्व को खत्म होने में महज चार वर्ष लगेंगे, मधुमक्खियाँ खत्म तो पोलिनेशन खत्म और पोलिनेशन खत्म तो विश्व का भोजन उत्पादन खत्म, मतलब मानव प्रजाति विलुप्त।” आज सभी को इस वक्तव्य की सच्चाई समझ में आने लगी है।

दुर्भाग्यवश जब भी पशु-क्रूरता की बात होती है तो हम मधुमक्खियों और छोटे-छोटे अनेक कीड़ों की ओर बमुश्किल ही सोच पाते हैं। शहद और मधुमक्खी से प्राप्त अन्य प्रत्यक्ष उत्पादों को तो हम मधुमक्खियों के परागन-सेचन की क्रिया का प्रतिउत्पाद मानकर, हम इनके इस्तेमाल में कुछ भी अनैतिक महसूस नहीं कर पाते हैं! मधुमक्खियाँ और अनेक प्रकार के अन्य कीड़े हमारे वातावरण में उन्मुक्त उड़ते हुए हमें सदा स्वतन्त्र और प्रसन्नचित्त प्राणी प्रतीत होते हैं। लेकिन सत्य इससे कहीं जुदा है। आज विश्व में मधुमक्खियों की भी गाय, शुकर, मुर्गियों जैसे अन्य पशुओं की भांति “खेती” होने लगी है और उन्हीं की भांति मानव के क्रूरतापूर्ण अत्याचार की शिकार भी होने लगी है। शहद, मोम, रॉयल जेली, बी-पोलन, प्रोपोलिस, विष, लार्वा आदि कई उत्पादों को प्राप्त करने के लिए बड़ी मात्रा में मधुमक्खियों का “पालन” यानि कि शोषण किया जाने लगा है।

रानी मधुमक्खियों का ड्रोन की सहायता से कृत्रिम तरीके से प्रजनन किया जाता है, जिसमें अधिकतर ड्रोन मारे जाते हैं। रानी मक्खियों के प्रजनन के बाद उनका एक पंख कुतर दिया जाता है ताकि वे कभी उड़ न सके। बिना रानी मक्खी के उड़े मधुमक्खियों की बस्तियां पलायन (swarming) नहीं कर पाती और मजबूरी में मानव-निर्मित सफ़ेद-बक्से में शहद बनाने को मजबूर हो जाती है। खुले और प्राकृतिक वातावरण में वृक्ष की शाखाओं से झूलते मधुमक्खियों के छत्तों की जगह कृत्रिम आयताकार बंद, सफ़ेद बक्सों ने ले ली है, जिन्हें मधुमक्खी-पालक अपनी सुविधानुसार कहीं भी उठा कर ले जा सकता है। रानी मधुमक्खियों को तो पार्सल बना कर कोरियर के द्वारा प्रजनन केंद्र से किसानों तक भेजा जाता है जिससे कई की तो रास्ते में ही मौत हो जाती है।

जम्मू और कश्मीर में ठण्ड के मौसम में शहद का उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्हें वहाँ से उत्तर-प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड और यहाँ तक कि राजस्थान तक की दूरी सड़क मार्ग से तय करवा कर लाया जाता है। ऐसे ही दूसरे राज्यों में भी किया जाता है। सरसों के मौसम में पंजाब तो सफेदा के समय सहारनपुर और सूरजमुखी के लिए हरियाणा आदि स्थानों पर एक मधुमक्खी का सफ़र ज़ारी रहता है। अपने पूरे जीवन-काल में 5 से 7 किलोमीटर की परिधि में रह कर, वहाँ उपलब्ध फूलों से पराग इकट्ठा कर अपना जीवन-निर्वाह करने वाली मधुमक्खियों को आज मानव ने अप्राकृतिक माध्यमों से उसे सैंकड़ो किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए विवश कर दिया है। उन्हें प्राकृतिक सीतनिद्रा में निष्क्रिय अवस्था में रहने का अवकाश भी नहीं दिया जाता अपितु एक राज्य के मौसम से दूसरे राज्य के मौसम में ले जाकर सालभर काम करने को मजबूर किया जाता है।

मधुमक्खियाँ अपने लिए बड़ी ही मेहनत से शहद बना कर छत्ते में एकत्र करती है, जिसे मनुष्य द्वारा बड़ी बेरहमी से चुरा लिया जाता है। एक मधुमक्खी अपने जीवन में छत्ते से फूल तक के लगभग दस हज़ार चक्कर लगाती है तब कहीं जाकर एक छोटा सा चम्मच शहद इकट्ठा कर पाती है। लगातार बारिश होने पर या अत्यधिक ठण्ड में जब वह फूलों से पराग इकठ्ठा करने नहीं जा पाती तब अपना इकट्ठा किया शहद ही पीकर काम चलाती है। इसके अलावा रानी मधुमक्खियों और लार्वों के लिए भी शहद की आवश्यकता होती है। परंतु मनुष्य अपनी स्वार्थ-पूर्ती के लिए यह सारा शहद चुरा लेता है और खराब मौसम के दौरान उसको जिंदा रखने के लिए शक्कर या फ्रक्ट्रोज़ का घोल पिलाता है।

शहद को चुराने के लिए कई प्रकार के हथकंडे अपनाये जाते हैं। छत्ते के नीचे आग लगा कर धुआँ किया जाता है जिसमें कई मधुमक्खियाँ मर जाती है। यदि उनकी रानी मक्खी मर जाती है या वो उस छत्ते को छोड़कर उड़ नहीं पाती है तो जो मधुमक्खियाँ बच भी जाती है, वे कुछ दिनों में ही अपने प्राण त्याग देती हैं। इसके अलावा दूसरे सभी प्रकार के शहद निकालने के तरीकों में भी हजारों मधुमक्खियाँ अपने प्राणों से हाथ धो बैठती है।

शहद का उत्पादन बढ़ाने के लिए कई बार वृद्ध हो गई रानी मक्खी को मार कर युवा रानी मक्खी को वहाँ प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। उनसे अधिक अण्डे उत्पादित करने के लिए छत्ते के अन्दर नये खाली छिद्रों (कोटरों) को जोड़ कर उनको धोखा दिया जाता है। मधुमक्खियों पर हो रहे लगातार शोषण से उनकी प्रजातियाँ कमज़ोर और बीमार होने लग गई है। आज इनकी कई प्रजातियाँ तो विलुप्ति की कगार पर है। अमरीका ने मई, 2015 में पहली बार मधुमक्खियों एवं अन्य सेचन करने वाले जीवों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए एक राष्ट्रीय रणनीति तैयार की है।

मधुमक्खियाँ हमारे भोजन के लिए आवश्यक पेड़-पौधों की 90 प्रतिशत प्रजातियों का सेचन (पोलिनेशन) करती है। एक मधुमक्खी को पराग एकत्र करने के लिए विविध पुष्पों की ज़रुरत होती है। परंतु आज मुनाफे और सरलता के मद्देनज़र एकल फसल की खेती का दौर चल पड़ा है। इससे मधुमक्खियों के लिए स्वस्थ वातावरण का अभाव होता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व की 100 प्रमुख वनस्पतियों में से 70 का सेचन मधुमक्खियाँ ही करती हैं जो की विश्व के भोजन का 90% भाग होता है। इसके लिए हमें असंख्य मधुमक्खियों की मदद लेनी पड़ती है।

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खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती में आगे पढ़ें, इसी श्रंखला का शेषांश अगली पोस्ट में।

धन्यवाद!

सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी