दूध को मिला अमृत का दर्ज़ा! -2 [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, प्रविष्टि – 14]steemCreated with Sketch.

in #hindi4 years ago (edited)

माँ के दूध में है अमृत्व का गुण

कुदरत ने हर प्रजाति का दूध उस विशिष्ट प्रजाति के बच्चे के लिए ही डिज़ाइन किया है, ताकि उसका बच्चा बड़ा हो कर उस प्रजाति-विशेष का एक विशिष्ट प्राणी बन सके।

गाय के दूध में उसके बछड़े की आवश्यकता के अनुरूप ही ज़रूरी तत्व पाए जाते हैं, वह मानव के शरीर के लिए उपयुक्त नहीं है। जन्म के समय मात्र 25 से 30 किलोग्राम वजन का गाय का बछड़ा मात्र दो वर्षों में ही 800 से 1,000 किलोग्राम का हो जाता है जबकि जन्म के समय केवल 3 से साढ़े तीन किलो वजनी मानव के शिशु का वजन एक स्वस्थ वयस्क होने पर भी सिर्फ 80 से 100 किलो के मध्य ही रहता है। अतः ये निसंदेह मानव के लिए नुकसानदायक है।

गाय के दूध में अत्यधिक प्रोटीन के अलावा कैल्सियम, फॉस्फोरस, सोडियम, पोटेशियम आदि आवश्यक घटक एक शिशु या वयस्क की जरूरतों से कई गुना अधिक हैं। इनकी अत्यधिक मात्रा हमारे पाचन तंत्र पर अनावश्यक बोझ लाद देती है। यही नहीं, इनके असंतुलित अनुपात हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक हैं।

गाय के दूध से बेमेल पोषण:

पोषक तत्वमाँ का दूध (मि.ग्रा./100 कैलोरी)गाय का दूध(मि.ग्रा./100 कैलोरी)
प्रोटीन521
कैल्सियम45194
फोस्फोरस18152
सोडियम2380
पोटेशियम72246

यह बड़ी विचित्र बात है कि आज हमें माँ के दूध के महत्व और शिशु के लिए उसकी अनिवार्यता के प्रति भी लोगों को जागृत करना पड़ रहा है। उद्योगपतियों ने अपने पैसों के बल पर और अपने निजी स्वार्थ के लिए, ताबड़-तोड़ विज्ञापन-बाजी और लुभावनी पेशकशों के मार्फत जन-मानस को बिल्कुल विपरीत पाठ पढ़ा दिया है। अपने द्वारा उत्पादित अनेक प्रकार के पैकेज्ड बेबी-फूड्स और दूध पाउडरों को ये डेयरी उद्योग माँ के दूध से भी अधिक पौष्टिक घोषित करने में सफल रहे हैं। आक्रामक और अनैतिक विपणन शैली को अपना, ये कंपनियां अपने उत्पादों को अस्पतालों में स्तनपान करा रही माताओं को रियायती दरों पर अथवा मुफ्त में ही उपलब्ध करा देते हैं। इसके बाद वे माताएं इनको पूरे पैसे देकर खरीदने के लिए विवश हो जाती हैं। जिन गरीब परिवारों में संतुलित भोजन तक के लिए पर्याप्त धन का अभाव होता है, उनका भी अधिकांश पैसा इन व्यावसायिक उत्पादों को खरीदने में व्यय हो जाता है, जिसके फलस्वरूप बच्चा कुपोषण का शिकार हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 2011 की शिशु-दुग्धपान पर अपनी स्टेटस रिपोर्ट में कहा है कि दुनियाभर में स्तनपान द्वारा पाँच वर्ष तक की आयु के आठ लाख शिशुओं को मौत के मूँह में जाने से रोका जा सकता है, यदि शिशुओं को 0-23 माह तक समुचित स्तनपान कराया जाये। इसीलिए स्तनपान के विकल्पों के बेलगाम विपणन को रोकने के लिए 1981 में अन्तराष्ट्रीय मानक तय किये गए। परन्तु सभी नामी कंपनियां अभी भी इनका उल्लंघन कर रही हैं। इसी के मद्देनजर आई.बी.एफ.ए.एन. (International Baby Food Action Network) ने दुनिया के 160 देशों में उपभोक्ताओं को आगाह करने के लिए सक्रिय अभियान चला रखा है। इस क्षेत्र की विश्व की सबसे बड़ी दो कंपनियां, नेस्ले और डेनॉन के खिलाफ कई देशों में अभियान चलाये जा रहे हैं। यू.के. की “बेबी मिल्क एक्शन” के अनुसार नेस्ले, अपने इन्फेंट-फार्मूलों के लिए विज्ञापनों में “protects” babies, “gentle start” जैसे गुमराह करने वाले दावे करती है। इनके प्रयासों के फलस्वरूप, अक्टूबर 2014 में नेस्ले ने अपने “natural start” वाले दावे को खत्म करने का एलान किया है। परन्तु अप्रैल, 2015 की शेयर-धारकों की मीटिंग में अपने अन्य दावों को वापस लेने से साफ़ मुकर गई। स्पष्ट है कि उपभोक्ताओं को ही सतर्क रहना होगा और अपने-आप को बाजारीकरण के दुष्प्रभावों से बचाना होगा।

पूंजीवादियों की आक्रामक बाजारीकरण की नीतियों और गाय के दूध को अमृत की मान्यता देने की हमारी दकियानूसी परम्पराओं के कारण आज हमारा देश शिशुओं को स्तनपान कराने की दर में सभी दक्षिण एशियाई देशों से पिछड़ गया है। ब्रेस्टफीडिंग प्रोमोशन नेटवर्क ऑफ़ इण्डिया और पब्लिक हैल्थ रिसोर्स नेटवर्क द्वारा सितम्बर 2015 में जारी रिपोर्ट में सामने आया है कि भारत की आधे से अधिक (56%) माताएं अपने शिशुओं को जन्म के एक घंटे के अन्दर दुग्धपान नहीं कराती हैं। बी.पी.एन.आई. के डॉ. अरुण गुप्ता बताते हैं कि जन्म के एक घंटे के अन्दर स्रावित होने वाले गाढ़े-पीले दूध को शिशु को पिलाने से नवजात मृत्यु-दर में 22% कमी आ जाती है। लगातार स्तनपान से न्युमोनिया, डायरिया, मोटापा, कुपोषण जैसे कई गंभीर रोगों से शिशु की रक्षा होती है और ये माताओं को भी ब्रेस्ट-कैंसर से बचाता है और उनके गर्भाशय के जल्द सामान्य आकार में लौटने में मददगार होता है।

एक बात और गौर कीजियेगा कि सभी प्रजाति के जानवर अपनी माँ का दूध एक निश्चित अवधि के बाद छोड़ कर सामान्य भोजन पर आ जाते हैं। इसे उनका विनिंग-ऑफ पीरियड कहा जाता है जो हर प्रजाति का भिन्न-भिन्न होता है। परंतु इसके बाद वे फिर कभी दूध को मूँह भी नहीं लगाते। लेकिन मानव के साथ ऐसा कुछ नहीं है। वो आजकल जन्म से लेकर मरते दम तक दूध और उसके उत्पादों का बड़े चाव से उपभोग करता रहता है।

आज चाय, काफी या दूध के बिना तो आदमी की दिनचर्या शुरू ही नहीं हो पाती, भोजन में भी रोटी-चावल पर घी-मक्खन नहीं लगाया तो भोजन रूखा-सूखा कहलाता है और किसी मिठाई (जो कि अक्सर दूध-उत्पाद के बिना नहीं बन पाती) के बिना तो भोजन अधुरा ही माना जायेगा। आखिर डिज़र्ट में कुछ तो होना चाहिये न, भई! दूध, दही-रायता, घी-मक्खन, पनीर, छाछ-मठ्ठा, चाय-काफी तो आज की संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा बन गए हैं। इनको क्रूरता से जोड़ना तो किसी अधर्म की बात करने से कम नहीं! इसीलिए शायद अब तक आप से किसी ने ऐसा कहा ही नहीं। पर जब झूठ की इतनी अति हो जाये कि मानव का अस्तित्व स्वयं ही खतरे में पड़ जाये तो फिर सत्य को और अधिक नहीं छुपाया जा सकता। सत्य स्वतः ही अपने आपको विभिन्न माध्यमों से उजागर करने की चेष्टा करता है, ज़रुरत है तो बस अपने आँख और कान खुले रखने की।

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खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती में आगे पढ़ें, इसी श्रंखला का शेषांश अगली पोस्ट में।

धन्यवाद!

सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी